इंसान | Being Human
काव्यFAVORITESLIFE
- अपरिचित
राम को जगाऊं खुद में,
या मन का रावण मार दूं ,
प्रेम करुणा शांति अपनाऊँ
राम चरित मय इंसान बनूं
लोभ क्रोध काम मद... से शूरता से युद्ध करूं
स्वयं पे हीं वार करूं, स्वयं के विरुद्ध लड़ूं
ना मैं राक्षस, ना मैं देव हूं
ना अभिलाषा... मैं महान बनूं
इतनी सी इच्छा के इंसानियत समझ लूं
संतृप्त हृदय मय बस इंसान बनूं
विनय पथ पे पंथ बुनूं
कर्तव्य मार्ग पर अटल चलूं
बढूं मृत्यु से अमरत्व की ओर
जो राह यदि मैं सत् चुनूं
ना मैं पंछी हूं, ना हीं पंथी हूं
ना अभिलाषा... मैं दीवान बनूं
इतनी सी इच्छा के इंसानियत समझ लूं
मै बेहतर मैं बनूं, एक साधारण इंसान बनूं
अपनी संस्कृति का अनुयाई रहूं
वैदेशिक विधिवादों का प्रतिरोध करूं
आत्मविस्तार कर खुद को समझूं
निजी क्रूर कृत्य का बोध करूं
ना मैं सरल, ना हीं तरल हूं
ना अभिलाषा... मैं पाषाण(न) बनूं
इतनी सी इच्छा के इंसानियत समझ लूं
अतीत के मुकाबले आज उत्तम इंसान बनूं
धर्म कर्म मर्यादा प्रतिष्ठा इंसान चरित्र लिखने बैठूं
आज इंसा के नाम केवल हया द्वेष और शर्म लिखूं
इंसानियत का संदेश लिए, हर शब्द में अपने धर्म कहूं
इंसा हो तुम, इंसा हूं मैं... मुझसे हीं धर्म है... मैं ही तो धर्म हूं ।।
ना मैं अधम ना महावीर बनू
ना अभिलाषा... मैं भगवान बनूं
इतनी सी इच्छा के इंसानियत समझ लूं
सत्कर्म मय हृदय लिए बस इंसान बनूं
रावण को प्रथम प्रणाम कर
मैं खुद में राम को रमता हूं
जब भला बुरा समझते... अच्छाई के मार्ग पे बढ़ता हूं
तब जाकर कहीं... मैं असल इंसान बनता हूं ।


यह कविता आत्मचिंतन और आत्मविकास की एक गूढ़ यात्रा है, जहां कवि खुद से लड़ता है — अपनी वासनाओं, क्रोध, लोभ, और अभिमान से। वह न देव बनना चाहता है, न राक्षस; बस एक सच्चा इंसान बनना चाहता है, जो सत्य, धर्म और करुणा से जीवन जी सके। यह कविता संस्कृति, आत्मबोध, और मानवता के मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा देती है।
कवि राम को भीतर जगाना चाहता है, पर पहले स्वयं के रावण से युद्ध करता है।
धर्म और इंसानियत का सामंजस्य इसमें झलकता है, और अंत में यही संदेश देता है — “मैं ही धर्म हूं, जब मैं इंसान हूं।”