रसम-ए-जिंदगी | Human vs Nature

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खुशियां कम और अरमान बहुत हैं
जैसे भी देखो परेशान बहुत हैं
यूं तो बहुत पढ़े लिखे हैं हम मगर
दुनिया की नजरों में नादान बहुत हैं

करीब से देखोगे तो मिलेगा रेत का घर
मगर दूर से देखो हमारी शान बहुत हैं
ज़मीर का सौदा कर दिया है हमने
कल दुकान सजाने को अभी ईमान बहुत है

कहते हैं सच का कोई मुकाबला नहीं
मगर आज झूठ की पहचान बहुत हैं
सच्चाई का मोल कहां अब यहां,
दिखावे यदि देखो, यहां आम बहुत है

जीवन के इस खेल में कब... का हार चुका है आदमी
कहने को तो अभी भी बचे जीवनदान बहुत है
मुश्किल से अब मिलते है असल में इंसा
यू तो कहने को यहां इंसान बहुत हैं

जरूरतें नहीं पर दिखावा जरूरी है क्योंकि
सामाजिक नाकामियों के हिस्सेदार बहुत हैं
पैसे नहीं सपने देखने तक के
फिर भी सेंधी अमीरों के खरीद्दार बहुत हैं

हमें मिल बांट के रहना चाहिए वो कहते हैं,
बांटना था जिसे हित में
उसका बेहिसाब बंटवारा कर दिया
एक एक भूमि के अनेक हिस्से कर
हमारा से मेरा तुम्हारा कर दिया
दुनिया में इश्क के इज़हार बहुत हैं
फिर क्यूं परिवारों में तकरार बहोत हैं

वो बीज अंकुर हो न सका जमीं के आभाव से
ढूंढो तो यहां एक एक जमीं के ज़मीदार बहुत हैं
किसीको खबर नहीं मायने क्या प्रकृति के
मगर कुल्हाड़ी, जंगे और जानों के व्यापार बहुत हैं
पृथ्वी रूपी स्वर्ग मिली तो संजो ना सकें,
और कहते हैं रहने को अन्य ग्रहों पे आसार बहोत हैं

पुष्प मिलकर बाग बनतें , नदियां बनती समंदर
बस आदमी हीं आदमी से हैरान बहुत है
खुश कौन है खबर नहीं पर दुखी लगता हर कोई
जैसे भी देखो सभी परेशान बहुत हैं ||

यह कविता आज की सामाजिक, मानसिक और नैतिक स्थितियों का दर्पण है। इसमें दिखावे से भरी दुनिया की खोखली चमक, इंसानियत का खोता हुआ वजूद और सत्य का गिरता मूल्य उजागर किया गया है। व्यक्ति पढ़ा-लिखा होकर भी व्यावहारिक जीवन में नादान है, क्योंकि यहां ईमान बिकता है, ज़मीर गिरवी है और झूठ ही पहचान बन गया है। ज़िन्दगी एक दिखावे की दौड़ बन चुकी है, जहां ज़रूरतें नहीं, सामाजिक प्रतिस्पर्धा ज़रूरी है। परिवार बंट चुके हैं, प्रकृति उपेक्षित है, और इंसान खुद इंसान से डरा हुआ है।

अंततः यह रचना एक गहरी पीड़ा और आत्मचिंतन की पुकार है — क्या हम सच में "इंसान" बचे हैं?

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